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रविवार, 2 अगस्त 2009

हिन्दुत्व का लक्ष्य स्वर्ग-नरक से ऊपर है

कुछ पंथ या मजहब कहते हैं कि ईश्वर से डरोगे, संयम रखोगे तो मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा और सरकशी का जीवन बिताओगे तो नरक मिलेगा । स्वर्ग में सुन्दर स्त्री मिलती है; मनचाहे भोजन का, सुगन्धित वायु का और कर्णप्रिय संगीत का आनंद मिलता है; नेत्रों को प्रिय लगने वाले दर्शनीय स्थल होते हैं अर्थात् पांचों ज्ञानेन्द्रियों को परम तृप्ति जहाँ मिले वहीं स्वर्ग है । नरक में यातनाएँ मिलती हैं पुलिसिया अंदाज में; जैसे अपराधी से उसका अपराध कबूल करवाने या सच उगलवाने के लिए व्यक्ति को उल्टा लटका देना, बर्फ की सिल्लियों पर लिटा देना आदि या आतंकवादियों, डकैतों और तस्करों के कुकृत्य की तरह जो शारीरिक और मानसिक यातना देने की सारी सीमाएँ तोड़ देते हैं । नरक में इससे अधिक कुछ नहीं है ।

स्वर्ग के जो सुख बताये गये हैं, उन सुखों को विलासी राजाओं और बादशाहों ने इस धरती पर ही प्राप्त कर लिया । और नरक की जो स्थिति बतायी गयी है, मजहब और पंथ के नाम पर आतंकवादी इस धरती को ही नरक बना रहें हैं । नरक का भय दिखाकर तो हम ईश्वर को सबसे बड़ा आतंकवादी ही साबित करेंगे । वस्तुत: ईश्वर को स्वर्ग के सुख या नारकीय यातना से जोड़ने का कोई सर्वस्वीकार्य कारण उपलब्ध नहीं है ।

हिन्दू धर्म में जो संकेत मिलते हैं उसके अनुसार स्वर्ग और नरक यहीं हैं । हमारे शरीर एवं इन्द्रियों की क्षमताएँ सीमित हैं । हम अत्यधिक विषयासक्ति के दुष्परिणामों से बच नहीं सकते । किन्तु हिन्दू समाज में भी स्वर्ग और नरक के लोकों के अन्यत्र स्थित होने को मान्यता दी गयी है । यदि हम इसे सही मान लें तो जिन लोगों ने नेक काम किये हैं उन्हें स्वर्ग में और जिन लोगों ने बुरे काम किये हैं उन्हें नरक में होना चाहिए । चाहे सुख हो या यातना दोनों को शरीर के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है । इस स्थिति में स्वर्ग की आबादी तो बहुत बढ़ जानी चाहिए । अप्सराओं की संख्या तो सीमित है; वे कितने लोगों का मन बहलाती होंगी? वस्तुत: यह धरती ही स्वर्ग है, यह धरती ही नरक है । इस धरती को नरक बनने से रोकने और स्वर्ग में बदलने का उत्तरदायित्व हमारा है । यह कार्य सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना और सामूहिक प्रयास से ही सम्भव है । इसीलिए धर्म की आवश्यकता है ।

हिन्दुत्व कहता है कि यदि हमने सत्कर्म किये हैं और हमें लगता है कि पूर्ण कर्म-फल नहीं मिला तो हमारा पुनर्जन्म हो सकता है - अतृप्त कामना की पूर्ति के लिए । और यदि हमने दुष्कर्म कियें हैं तो कर्म-फल भोगने के लिए हमारा पुनर्जन्म होगा । किन्तु यदि संसार से हमारा मोह-भंग हो जाता है, कर्मों में आसक्ति समाप्त हो जाती है, कोई कामना शेष नहीं रहती या ईश्वर में असीम श्रद्धा और भक्ति के कारण ईश्वर को पाने की इच्छा ही शेष रहती है तो हम पुनर्जन्म सहित सभी बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं, मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । इस प्रकार हिन्दुत्व का परम लक्ष्य स्वर्ग-प्राप्ति न होकर मोक्ष की प्राप्ति है ।